घटनाएं समाज को किलियर होकर आईना दिखाती है, अपने कालिख पुते चेहरे पर कितने भी चेहरे लगा लो, लेकिन ये घटनाएं समाज को नंगा करके ही दिखाती है
त्योहारों का सीजन चल रहा है, दशहरा, उसके बाद शरद पूर्णिमा, और आगे वाले समय मे दिवाली और तमाम प्रकार के त्योहार, जो सिर्फ इस लिए मनाए जाते है कि इंसानों में मानविकी जिंदा रहे लेकिन इसके समानांतर कुछ ऐसी घटनाएं चलती रहती है जिनकी वजह से न सिर्फ समाज को शर्मसार होना पड़ता है बल्कि इन घटनाओं का सामना करने की बजाय लोगो की भागती तश्वीरें सांमने आ जाती है।
आपको तबरेज अंसारी याद है ना, वही व्यक्ति जिसकी कुछ लोगो ने सिर्फ इस लिए पीट-पीट कर हत्या कर दी क्योंकि उस पर कुछ चोरी करने का शक या आरोप था, लोगों ने मौके पर ही खुद को पुलिस, वकील, और जज समझ कर उस संदिग्ध व्यक्ति को मौत के घाट उतार दिया और बुद्धिजीवियों ने इसे लिंचिंग या मॉब लिंचिंग का नाम दिया, पूरे भारत में एक निरपराध की हत्या से उबाल उठ गया।
लोगों ने असहिष्णुता और इन्टॉलरेंस जैसे भारी भरकम शब्दों का प्रयोग किया जो बेहद मजबूती के साथ जायज भी था, लेखकों, नेताओं, फिल्मी दुनिया के लोगों ने सरकारों के दरवाजे पीटे, मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर गहरा विरोध किया, नतीजन सारे आरोपी न सिर्फ पकड़े गए बल्कि उनपर सुसंगत धाराओं के तहत मुकदमे और सजा दिलाने की कवायद शुरू हुई।
पीड़ित परिवार को मुआबजे की रकम भी जनता के बीच निर्धारित हुई और सरकार को मजबूर होकर उस पर कायम होना पड़ा।
राजनैतिक विभीषिका का आलम धर्म और जातिक समीकरण को साधने के चक्कर मे दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस मामले पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में जुटे और अपने राज्य के टैक्स पेयर्स का पैसा मदद के नाम पर उक्त पीड़ित को उपलब्ध कराया गया।
हालाँकि इस कदम को गलत करार नही दिया जा सकता क्योंकि ये सब क्रिया-कलाप मानवता और असहिष्णुता के नाम पर किया गया, यही स्थिति लखनऊ के पुलिस गोलीकांड पर बनी, गोमती नगर के आस-पास एप्पल के कर्मचारी को पुलिस कर्मी के द्वारा गोली मारने की वजह से समाज मे एक उबाल आया, जातिगत समूहों ने अपनी कड़ी उपस्थित दर्ज करा कर सरकार और विभाग को घुटनों पर ला दिया, फ्लेट, पैसा सब आनन-फानन में उपलब्ध कराया गया, ये सब जायज और बेहद जरूरी है लेकिन असल समस्या तब होती है जब लोग हत्या -हत्या में अंतर स्पष्ट कर बैठते है, लोगों को हत्याओं में जाति, धर्म, दल, इत्यादि नजर आने लगते है।
हालांकि पश्चिम बंगाल तृणमूल के विरोधियों के लिए कभी सुविधाजनक स्थान नही रहा, एक लंबे समय से धार्मिक तुष्टिकरण और तृणमूल विरोधियों को सत्ता पक्ष की शह से ठिकाने लगाने के आरोप लगते आ रहे है, ताजा घटना ने एक बार बंगाल को फिर लाइट में ला दिया है, एक स्कूल टीचर को उसकी गर्भवती पत्नी और एक बच्चे के साथ उसके घर मे निर्ममता के साथ कत्ल कर दिया गया है, आरएसएस (RSS) ने आमजन को बताया कि मृतक बंधु पाल संघ का कार्यकर्ता था।
इस बात पर बंगाल पुलिस और स्थानीय जांच एजेंसियां अपनी-अपनी कहानी रचने में जुटी है।
हालांकि इस मामले के बाद किसी तथाकथित लेखक, फिल्मनिर्माता, अभिनेता-अभिनेत्रियों की तरफ से कोई सार्थक बयान नही आया।
किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री और किसी अन्य नेता ने पूर्व की घटनाओं की तरह न तो माबलिंचिंग की बात का उल्लेख किया, क्योंकि बात यह सामने आयी कि मृतक का जुड़ाव संघ से था।
ममता बनर्जी अभी भी मौनमुद्रा में व्यस्त है, देखते है उनके मुंह से उवाच कब निकलता है, और सामाजिक मारीच अभी सोने का हिरण बने हुए घूम रहे हैं।