
यह वेब सीरीज भले ही ताकतवर पात्र को लेकर बनाई गई है, लेकिन कहानी सच होने के बावजूद इस कदर लिखी गयी है कि यह कहानी महज एक सिनेमाई कहानी तक ही सीमित रह जाती है।
दरअसल हिंदी सिनेमा में एक लंबी फेरहिस्त मिलती है जिसमें एक व्यक्ति जातिगत विरोध के कारण अपना बदला लेने के लिए बंदूक उठाता है, इस वेब सीरीज में भी यही पत्ता फेंका गया है लेकिन असल कहानी इससे कहीं ज्यादा अलग है। मूलतः यह कहानी बुंदेलखंड ( चित्रकूट-मानिकपुर-पाठा क्षेत्र ) के दुर्दांत दस्यु सम्राट शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ के ऊपर आधारित है।
शायद इतिहास का कोई ऐसा डकैत रहा हो जिसके पीछे पुलिस ने इतने ऑपरेशन चलाये, पैसा पानी की तरह बहाया गया लेकिन फिर भी सरकारों और पुलिस को शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ की एक मात्र स्केच तस्वीर के अलावा कुछ भी हासिल नही हुआ।
साथ ही पुलिस ने एनकाउंटर भी तब किया जब पाठा के जंगलों में दो गिरोहों के बीच उपज रहे विरोध ने पुलिस को जगह दे दी और मरणासन्न अवस्था मे पुलिस ने एनकाउंटर किया, खैर ददुआ की कहानी फिर कभी मुख्य मुद्दा है वेब सीरीज की कहानी पर जिसको लेकर हम आपको बताएंगे कि ये वेब सीरीज हमारे अनुसार देखने लायक है या नही।
ओटीटी प्लेटफार्म एमएक्स प्लेयर पर स्ट्रीम की जाने वाली इस वेब सीरीज को पांच भागो में बांटकर बुंदेलखंड के चित्रकूट इलाके में होने वाली घटनाओं को संजोकर एक फ़िल्मनुमा रखने का प्रयास किया गया है।
इस सीरीज के लेखक और निर्देशक है रक्तांचल जैसी खून खराबे से भरी कहानी को लिखने वाले रितम श्रीवास्तव, हालांकि कहानी को बेहद सधे तरीके से लिखा गया है लेकिन पूरी कहानी ऊहापोह से भरी हुई नजर आती है, जिस मुख्य पात्र पर इस कहानी को लिखने गढ़ने का प्रयास किया गया है यह कहानी उसके पास तक छूती हुई नजर नही आती। हालांकि कलाकारों के रूप में कई कलाकार बेहद आकर्षित करते है। खुद दद्दू ( ददुआ) के रूप में दिलीप आर्या कभी कभार इतने रमे हुए नजर आते है कि आप असली ददुआ और सीरीज के ददुआ में अंतर नही स्पस्ट नही कर पाते, मुख्य कालाकारों के अलावा दद्दू की पत्नी का अभिनय करने वाली महिला कलाकार लौरा मिश्रा बेहद सहज लगी है, हालांकि उनके चरित्र को उतनी जगह नही मिली जिसकी वो हकदार थी।
देखिए बुंदेलखंड में एक कहावत है "कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी" लेकिन लोग बुंदेलखंड को चंबल का बीहड़ मानकर उसी भाषा पर आधारित फिल्म और वेब सीरीज बनाने निकल पड़ते है लेकिन माजरा कुछ अलग है। दरअसल सिनेमाई रिसर्चर को अगर किसी कहानी को लेकर कोई सिनेमाई काम करना होता है तो उसके लिए लंबी रिसर्च की जाती है लेकिन "बीहड़ के बागी" वेबसिरीज में रिसर्च टीम ने क्या खाकर रिसर्च की भगवान ही जाने, बाँदा-चित्रकूट-मानिकपुर के बागी अगर चंबल की जुबान में बात करते हुए नजर आए तो सच्ची कहानी भी झूठी सी लगने लगती है। दरअसल सिनेमा नए प्रयोगों की जगह है, लोगों को अगर नए सिनेमा में डाकुओं की कहानियों पर कहानियां लिखनी होती है तो वह पान सिंह तोमर और बैंडिट क्वीन जैसी कालजयी फिल्मों की नकल करने से भी गुरेज नही करते और इस फ़िल्म में शायद कुछ ऐसा ही हुआ है।
अगर लोकेशन की बात करें तो यह फ़िल्म विशुद्ध रूप से चित्रकूट में फिल्माई गयी है, जो कहीं न कही बैंडिट क्वीन और पान सिंह तोमर से प्रेरित लगती है लेकिन एक कहावत और है कि "नकल हमेशा होती है बराबरी कभी नही"। लोग नकल करने के चक्कर मे चंबल की भाषा को चित्रकूट में भी उतारने लगते है, हाल कुछ ऐसा ही है जैसे मानो यूपी बिहार की भाषा को एक मानकर चंबल क्षेत्र की फ़िल्म को भोजपुरी भाषा मे डब करके दिखाए, यह फ़िल्म भी सलीके से देखने पर डबिंग फ़िल्म महसूस होती है।
देखिए आप अगर एक बार भी चित्रकूट, बाँदा इत्यादि गए है और आपका वास्ता किसी भी ऐसे व्यक्ति से हुआ है जो यहाँ का रहने वाला है तो आपको उनके बात करने के लहजे और फ़िल्म की बोली में साफ-साफ अन्तर नजर आ जायेगा, वेब सीरीज पक्के तौर पर यहीं मार खा जाती है। क्लाईमेक्स ऐसा लगता है मानो खुद डायरेक्टर के सर पर बंदूक की नली रखकर जल्द खत्म कराया गया हो, पूरीवेब सीरीज देखने के बाद भी आप निर्णय नही कर पाते कि आखिर फ़िल्म में हीरो कौन है और कौन विलेन।
अगर आप डाकू और डैकेती पर आधारित फिल्मों के शौकीन है और धूमधड़ाका के नाम पर कुछ भी देखना पसंद करते है तो यह वेब सीरीज आप के लिए ही बनाई गई है, करीब 1 घंटे 40 मिनिट और 41 सेकेंड की पूरी वेबसिरीज कहीं न कही कहानी को छोड़ते हुए आगे निकलती नजर आती है लेकिन अगर आप इन सभी खामियों को नजरअंदाज करके आनंद उठाना जानते है तो एमएक्स प्लेयर एक मुफ्त का प्लेटफार्म है भारी भरकम एडवरटाइजिंग के बाद आप इस सीरीज को झेल सकते है।
नोट: लेखक उसी क्षेत्र के निवासी है, मुख्य पात्र के जीवन को करीब से जानते है और भाषा के मामले में दखलंदाजी स्वीकार नहीं करते।
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