
दस्यु सम्राट कहे जाने वाले डकैत मोहर सिंह के ऊपर 400 हत्याएं और करीब 650 पकड़ (अपहरण) के केस दर्ज थे। एक वक्त तो ऐसा भी आया था जब तीन प्रदेशों उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश और राजस्थान पुलिस के सामने मोहर सिंह एक सवाल बन गया था। पिछले मंगलवार को ही मोहर सिंह ने अपनी आखिरी सांस ली है।
पुलिस रिकार्ड खंगालने पर पता चलता है कि सन 1958 में मध्यप्रदेश के भिंड जिले के अन्तर्गत आने वाले कस्बे मेहगांव में एक जमीनी विवाद एक खूनी रंजिश में बदल गयी और मोहर सिंह (dacoit mohar singh) ने एक व्यक्ति का कत्ल कर दिया इसके बाद नाबालिग मोहरसिंह चंबल के कुख्यात बीहड़ में अपनी नई राह बनाने के निकल पड़ा। एक लंबे इतिहास में मोहर सिंह ने अपनी बंदूक और बेरहमी से चंबल में वो मुकाम पाया जिसे पाना हर डकैत का सपना होता है और मोहर सिंह का यह आतंक 70 के दशक तक कायम रहा जब तक मोहरसिंह ने जयप्रकाश नारायण के आवाहन पर अपने 140 साथियों के साथ 1972 मे आत्मसमपर्ण नहीं किया उस वक्त तक मोहर सिंह के ऊपर तमाम सरकारों द्वारा 12 लाख का इनाम था। वहीँ निजी तौर पर दुश्मनों और बड़े रसूखदारों ने भी इससे कहीं ज्यादा इनाम मोहर सिंह पर चुपके-चुपके लगा रखा था। हालाँकि अब 92 साल का मोहरसिंह डायबिटीज और ह्रदय की बीमारी के चलते कालकवलित हो चुका है लेकिन आतंक में सबसे ऊपर नाम होने की वजह से फिल्मी दुनिया मे मोहर सिंह के निजी डायलॉग बेइंतहा प्रयोग हुए जिसमे रमेश सिप्पी की शोले का महशूर डायलॉग "चुप होजा नहीं तो गब्बर आ जायेगा" असल मे "चुप्पा हो जा नई तो मोहर आ जैहै" से प्रेरित था।
अगर इसे डकैती का स्टार्टअप कहा जाए तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूँकि मोहर सिंह ने जब पहली हत्या जमीनी विवाद को लेकर की उसके बाद पुलिस से बचने के लिए मोहर सिंह ने चंबल के बीहड़ का रास्ता नापा लेकिन वहां भी मोहर सिंह को कोई तवज्जो नहीं मिली। वजह थी उम्र और लड़कपन में की गई हत्या। इसके बाद हर जगह से नकारे जाने के बाद मोहर सिंह ने खुद ही गैंग बनाने का निर्णय लिया और बाद में यह गैंग 140 सदस्यों की गैंग बनी जिसका कहर लंबे समय तक बना रहा।
अगर मोहर सिंह की क्राइम फाइल्स खंगाले तो एक बेहद अलग ट्रेंड नजर आता है। वैसे तो कोई भी डकैत पुलिस से सीधी-सीधी दुश्मनी लेने से डरता है लेकिन मोहर सिंह के मामले में यह ट्रेंड अलग नजर आता है। जिसमे मोहर सिंह ने अपने द्वारा की गई हत्याओं में सबसे ज्यादा प्रतिशत मुखबिरों और पुलिस कर्मियों का है। मोहर सिंह के मुखबिरों के बारे में कहा जाता था कि उसकी जिंदगी बेहद छोटी हो चुकी है।
अब इसे अपना खुद का कानून कहे या कुछ और दस्यु मोहर सिंह ने अपनी गैंग में शामिल होने वाले लड़को से पहली शर्त यह रखी थी कि किसी भी हालत में गैंग के कानूनों को नहीं तोड़ना है। जिसमे महिला का हर हाल में सम्मान करना, गरीबों की लूट न करने की कसम बच्चों और महिलाओं पर किसी भी हाल में हाँथ न उठाने की कसम और गैंग में किसी महिला को शामिल न करने के नियम शामिल थे। खुद मोहर सिंह मानते थे कि शायद इन्हीं नियमों की वजह से वो लंबे वक्त तक दस्यु जीवन जीते रहे अन्यथा कब का पुलिस एनकॉउंटर कर देती।
डकैत मोहर सिंह ने महात्मा गांधी के अहिंसावादी चरित्र से प्रभावित और जयप्रकाश नारायण के आवाहन पर तत्कालीन मुख्यमंत्री के साझा कार्यक्रम में 140 डकैतों के साथ आत्मसमपर्ण किया। चूंकि इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस की भूमिका बराबर की थी, लेकिन किसी भी स्थिति में मोहर सिंह उत्तर प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना सोच भी नहीं सकता था। क्योंकि मोहर सिंह के अनुसार यूपी पुलिस एनकॉउंटर करने के लिए बदनाम है।
सरेंडर के बाद मोहर सिंह ने करीब आठ साल जेल में गुजारे और इस वक्त में भी मोहर सिंह की शान ओ शौकत में कोई कमी नजर नहीं आई। इसके बाद सन 1982 में आई हिंदी फिल्म " चंबल के डांकू" में अपने भाई माधो सिंह के साथ काम किया। ये फ़िल्म भले ही भारत भर में नहीं चली लेकिन उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश और राजस्थान में इस फ़िल्म को काफी ज्यादा में पसंद किया गया था।
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